क़लम
Original: Pencil by Marianne Boruch
Translation:
मेरी कला-अध्यापिका ने कहा: ‘देखो, सोचो, निशान लगाओ।’
देखो, मैंने खुद से कहा।
और इंतज़ार में रहा निशान के।
बादल सफ़ेद हों लेकिन कजला जाते हैं
बारिश में। बच्चा भी उन्हें धुंधला देता है
ज्यों टीले पे हों गुदड़ियाँ, छोटी
बे-पैर ढेरियां। देखो, मेरी अध्यापिका
ज़रूर कहेगी, बिलकुल नहीं है
वो वैसे। ‘वैसा’ जैसे: झूठ। ‘वैसी’ जैसे: कविता।
वो बोली: सूरत के सबसे भारी पहलू
को पहले सूझो। घने होने में
रूप है। जबकि मैं सुनता रहता हूँ ‘होनी’
ये तो सिफ़त का ठप्पा नहीं। जैसे ‘सवाब’
शोरगुल में बदल गया ‘सराब’ में, मेरे कानों पे
किसी का जोशीला बयां। फिर ‘सबब’ फिसला।
‘सर-आब’, ‘सर-आब’, सुनता रहा उस मशहूर कवि को,
मरोड़ते हुए माइक्रोफोन में, अपने शऊर।
जिसकी सूरत बनानी है -
उम्र में मुझसे आधी भी नहीं। उसने अपना पूरा
चेहरा उड़ेल दिया है बुत जैसे खड़े होकर एक घंटे तक।
‘देखो।’ अच्छा। लेकिन छोटा
सा ख्वाब है वहां, उस ‘सोच’ में
जो कि अगला कदम है। मेरे हाथ की क़लम, जिसका मर्म
है कोयला, लकड़ी जल चुकी है, दे चुकी है
क़ुरबानी।